देश में बकरा पालन अब एक लाभकारी और संगठित व्यवसाय के रूप में तेजी से उभर रहा है। लगातार बढ़ती मांग और बेहतर कीमतों के चलते देश के लाखों पशुपालक इस क्षेत्र में कदम रख रहे हैं। लेकिन जानकारों का मानना है कि बकरा पालन में सफलता तभी मिलती है जब बाजार की मांग को ध्यान में रखकर सही नस्ल का चुनाव किया जाए। जिस नस्ल के बकरे की स्थानीय मंडियों में सबसे ज्यादा मांग होती है, उसी नस्ल को पालना फायदेमंद होता है। इससे एक ओर बकरा आसानी से बिक जाता है और दूसरी ओर कीमत भी अपेक्षाकृत बेहतर मिलती है।
देश के कई इलाकों में बकरों की कुछ खास नस्लें पाई जाती हैं जो अपनी बनावट, वजन, ऊंचाई और प्रजनन क्षमता के कारण बाजार में खूब पसंद की जाती हैं। इनमें बरबरा, जमनापारी, जखराना, सोजत, सिरोही और तोतापरी जैसी नस्लें प्रमुख हैं। बरबरा नस्ल के बकरे की ऊंचाई ज्यादा नहीं होती, लेकिन यह दिखने में बहुत मोटा और मजबूत होता है। इसकी बाजार में अच्छी खासी मांग रहती है, खासकर उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा, इटावा और फिरोजाबाद जैसे इलाकों में।
जमनापारी नस्ल की पहचान इसके लंबे शरीर, भारी वजन और सफेद रंग से होती है। यह नस्ल इटावा से लेकर बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक के इलाकों में पाई जाती है। इसके कान मीडियम साइज के होते हैं और कुछ में गले और कान पर लाल रंग की धारियां भी देखी जाती हैं। बाजार में इसकी कीमत 15 से 20 हजार रुपये तक होती है, लेकिन अच्छे वजन और सेहत के साथ कीमत और ज्यादा हो सकती है।
जखराना नस्ल की खासियत है इसका पूरी तरह से काले रंग का होना। इसके सिर्फ कान और मुंह पर ही सफेद धब्बे होते हैं, बाकी शरीर एकदम काला होता है। यह नस्ल राजस्थान के अलवर जिले के जखराना गांव से निकली है। इस नस्ल की प्रजनन क्षमता भी काफी अच्छी होती है और एक साल में इसका वजन 25 से 30 किलो तक हो जाता है।
राजस्थान की ही एक और प्रसिद्ध नस्ल सोजत है, जो सफेद रंग और बड़े आकार के लिए जानी जाती है। इसे मुख्य रूप से मीट उत्पादन के लिए पाला जाता है और इसकी बाजार में अच्छी मांग रहती है, खासकर उत्तर भारत और महाराष्ट्र में। इसका औसत वजन 60 किलो तक होता है, और बकरी एक दिन में लगभग एक लीटर दूध भी दे सकती है।
सिरोही और तोतापरी दो और प्रमुख नस्लें हैं जो खासकर राजस्थान और हरियाणा में पाई जाती हैं। सिरोही नस्ल के बकरे भूरे और काले रंग के होते हैं, जिन पर सफेद धब्बे होते हैं और इनकी कद-काठी ऊंची होती है। यह नस्ल जल्दी तैयार हो जाती है और कम समय में बाजार में भेजी जा सकती है। वहीं तोतापरी नस्ल के बकरे लंबाई में ज्यादा होते हैं, लेकिन इन्हें बाजार में बिकने लायक बनाने में थोड़ा समय लगता है—कम से कम तीन साल।
आज के समय में जब इथेनॉल उद्योग, पोल्ट्री फीड और मीट सेक्टर में बकरों की मांग बढ़ रही है, ऐसे में पशुपालकों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे नस्ल चयन से लेकर पालन-पोषण तक के हर कदम को बाजार से जोड़कर चलें। बकरों की सही नस्ल, पर्याप्त देखभाल और स्थानीय मांग को समझकर काम किया जाए तो यह व्यवसाय साल भर मुनाफा दे सकता है। यही वजह है कि देश के कई हिस्सों में अब बकरा पालन सिर्फ जीविका का साधन नहीं, बल्कि एक सुनियोजित उद्यम बन चुका है।