कृषि पिटारा

बिहार को तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में बिहार कृषि विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण पहल

बिहार सरकार द्वारा तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के उद्देश्य से कई योजनाओं पर काम किया जा रहा है। इसी कड़ी में, बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), सबौर सक्रिय रूप से शोध और विकास कार्यों में संलग्न है। विश्वविद्यालय के तिलहन अनुसंधान विभाग द्वारा आयोजित एक गहन शोध प्रक्षेत्र भ्रमण के तहत समीक्षा बैठक में तिलहन की प्रमुख फसलों—सरसों, अलसी और कुसुम—पर प्रगति का विस्तृत विश्लेषण किया गया। इस बैठक में कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें और विकासात्मक उपलब्धियां सामने आईं।

अलसी अनुसंधान में मिली महत्वपूर्ण सफलता

समीक्षा बैठक में यह बताया गया कि अलसी अनुसंधान में वर्ष 2023-24 में BRLS-109-5 (Entry-08) किस्म में तेल की मात्रा 53 फीसदी दर्ज की गई, जो तिलहन अनुसंधान के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह किस्म भविष्य के परीक्षणों में एक मजबूत दावेदार साबित हो सकती है। इसके अलावा, उन्नत पीढ़ी परीक्षणों में कुछ पौधों में अधिक शाखायुक्तता और बेहतर उपज क्षमता की संभावनाएं देखने को मिलीं।

नैनो यूरिया और उतेरा प्रणाली में नवाचार

अलसी के अनुसंधान में नैनो यूरिया का उपयोग नाइट्रोजन प्रबंधन में किया जा रहा है। इसके साथ ही, किसानों के लिए अलसी की उतेरा प्रणाली (wet system) के लिए नए तकनीकी पैकेज विकसित किए गए हैं। इन नवाचारों का उद्देश्य फसल की गुणवत्ता और उत्पादन में सुधार करना है। इसके अतिरिक्त, धान की फसल के बाद रबी फसलों के तुलनात्मक अध्ययन पर भी अनुसंधान किया जा रहा है, जो भविष्य में किसानों को कृषि तकनीकों को अपनाने में मदद कर सकता है।

कुसुम और सरसों पर नई खोजें

बैठक के दौरान कुसुम अनुसंधान पर भी चर्चा हुई, जहां वैज्ञानिकों ने पहली बार स्पाइनलेस और स्पाइनी दोनों प्रकार के कुसुम पौधों का परीक्षण किया। इन पौधों में कुछ किस्मों के पीले और सफेद रंग के फूलों की खोज की गई, जिनके लिए प्रजनन प्रक्रिया में बैगिंग (Bagging) करने की सिफारिश की गई। इससे कुसुम के उत्पादन में वृद्धि की संभावना है।

इसके अलावा, सरसों अनुसंधान में भी एक महत्वपूर्ण विकास हुआ। वैज्ञानिकों ने भारतीय सरसों की एक नई किस्म विकसित की है, जिसमें पीले रंग के बीज होते हैं। यह नई किस्म किसानों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि यह उच्च उपज देने के साथ-साथ रोगों के प्रति प्रतिरोधी भी है।

तिलहन फसलों पर की गई अन्य शोध

बैठक में 245 जर्मप्लाज्म एक्सेसन का रखरखाव किया गया, जिससे तिलहन के संकरण और हाइब्रिड विकास कार्यक्रम को गति मिलेगी। साथ ही, तिलहन की फसलों पर बड फ्लाई कीट नियंत्रण के लिए वैज्ञानिकों ने पीले स्टिकी ट्रैप को सबसे प्रभावी उपाय बताया, जिससे कीट नियंत्रण में सफलता प्राप्त की गई है।

तिलहन अनुसंधान को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए सिफारिशें

बैठक में तिलहन अनुसंधान को और प्रभावी बनाने के लिए कई सिफारिशें की गईं, जैसे: वैज्ञानिकों को अपने विशिष्ट जर्मप्लाज्म को NBPGR, नई दिल्ली में रजिस्टर्ड कराने का निर्देश दिया गया। बड फ्लाई नियंत्रण के लिए पीले स्टिकी ट्रैप को अपनाने की सिफारिश की गई। उच्च-तेल और रोग-प्रतिरोधी अलसी और सरसों की किस्मों के विकास को प्राथमिकता देने की बात कही गई। कांटे रहित कुसुम और पीले बीज वाली सरसों पर उन्नत अनुसंधान को बढ़ावा देने की सिफारिश की गई।

बिहार बनेगा तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. डी.आर. सिंह ने कहा, “हमारा उद्देश्य तिलहन अनुसंधान के माध्यम से बिहार को आत्मनिर्भर बनाना है। यह बैठक वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण मंच साबित हुई है, जिससे नई खोजों को बढ़ावा मिलेगा और राज्य के तिलहन उत्पादन में वृद्धि होगी।”

निदेशक अनुसंधान डॉ. ए.के. सिंह ने कहा, “हम उच्च-उत्पादकता वाली और जलवायु-अनुकूल तिलहन किस्मों के विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इस शोध से किसानों को नई तकनीकों का लाभ मिलेगा और तिलहन उत्पादन में सुधार होगा।” बिहार कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा की जा रही अनुसंधान गतिविधियां राज्य में तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में नई दिशा प्रदान कर रही हैं। इन पहलों से न केवल राज्य के किसानों को लाभ होगा, बल्कि बिहार तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ा सकता है। सरकार और विश्वविद्यालय की यह संयुक्त पहल तिलहन की आयात निर्भरता को कम कर सकती है और राज्य के कृषि क्षेत्र को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा सकती है।

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