केंद्र सरकार देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने की बात कर रही है। लेकिन अब भी ऐसे किसानों की ही बहुलता है जो दुष्प्रभावों से अनभिज्ञ रासायनिक खेती के भरोसे ही क्रांतिकारी उपज की आस में हैं। और मुश्किल में हैं। देश के किसानों और कीटनाशक कंपनियों के सामने कुछ गंभीर मुश्किलें उत्पन्न हो रही हैं। दरअसल, इन कीटनाशक कंपनियों व किसानों की परेशानी का सबब विदेशी कीटनाशक निर्माता बने हुए हैं। कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों के संगठन के लिए आयात पर बढ़ती निर्भरता भी पर खासा चिंता का विषय बना हुआ है।
पेस्टीसाइड मैनुफैक्चरर्स एंड फार्मूलेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष प्रदीप दवे ने स्थिति को स्पष्ट करते हुए बताया कि, ‘‘संप्रग शासनकाल के दौरान वर्ष 2007 में कीटनाशकों में प्रयुक्त होने वाली दवाओं के विवरण को सेन्ट्रल इंसेक्टेसाइड बोर्ड के साथ पंजीकरण की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया था और केवल कीटनाशक दवा के पंजीकरण की व्यवस्था को बरकरार रखा गया। यहीं से सारी समस्या उत्पन्न हुई हैं। इस व्यवस्था के कारण भारतीय कंपनियों के लिए कीटनाशकों का उत्पादन करना मुश्किल हो गया है। क्योंकि कीटनाशकों को तैयार करने के लिए लगभग पांच-छह साल लगते हैं और इसके लिए भारी मात्रा में आँकड़े एकत्रित करने पड़ते हैं। कंपनियों पर इस काम के लिए 250 से 300 करोड़ रुपये का खर्च आता है। जबकि विदेशी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास ये आंकड़े तैयार होते हैं। इसके अलावा उनके पास 20 साल तक का पेटेन्ट भी होता है। जिसके कारण दूसरी कंपनियों के लिए उसकी नकल पेश करने में कानूनी अड़चनें आती हैं। आयातित कीटनाशकों में प्रयुक्त होने वाली दवाओं के पंजीकरण की आवश्यकता खत्म होने से देश में कीटनाशकों का आयात तेजी से बढ़ रहा है। इससे घरेलू विनिर्माताओं के लिए समस्या उत्पन्न हुई है।”
आपको यह भी बता दें कि, भारत में कीटनाशक क्षेत्र वर्ष 1968 के ‘इंसेक्टेसाइड कानून’ द्वारा संचालित होता है। वर्त्तमान में विदेशों से आयात होने वाले कीटनाशकों और उसमें प्रयुक्त अवयवों की गुणवत्ता को सुनिश्चित करना तक़रीबन मुश्किल हो गया है। जिसके परिणामस्वरूप विदेशी कंपनियां स्तरहीन रसायनों का इस्तेमाल करने में भी नहीं हिचक रही हैं। क्योंकि उनके सामने इन रसायनों के पंजीकरण की बाध्यता नहीं रह गयी है। इसके कारण किसानों को एक तो कम उपज मिल रही है दुसरे, इसके बावजूद भी फसलों की रक्षा के लिए महंगे दामों पर विदेशी कीटनाशक खरीदना उनकी मजबूरी बनी हुई है। ऐसे में, एक तरफ स्वदेशी कीटनाशक उत्पादक परेशान हैं वहीं दूसरी ओर किसान स्थिति की दोतरफा मार झेल रहे हैं।