भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है, और इस स्थान तक पहुंचने में करोड़ों पशुपालकों और लाखों गाय-भैंसों की मेहनत छिपी हुई है। परंतु कभी-कभी एक बीमारी पूरे दुग्ध उत्पादन तंत्र को अस्त-व्यस्त कर देती है। थनैला, जिसे चिकित्सकीय भाषा में मस्ताइटिस कहा जाता है, ऐसी ही एक गंभीर बीमारी है। यह बीमारी गाय-भैंसों के थनों में संक्रमण उत्पन्न कर देती है, जिससे न केवल दूध की मात्रा घट जाती है, बल्कि उसकी गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित होती है। यदि इसका समय पर इलाज न किया जाए, तो यह पशु के लिए जानलेवा साबित हो सकती है और पशुपालक को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
थनैला एक सूजन वाली स्थिति होती है, जो थनों में बैक्टीरिया, वायरस या फफूंद के संक्रमण के कारण होती है। इससे ग्रसित पशु का दूध निकालना कठिन हो जाता है और कभी-कभी दूध से बदबू आती है, उसमें झाग, थक्के या खून जैसे तत्व दिखाई देने लगते हैं। यह बीमारी कई प्रकार की हो सकती है। सबसे सामान्य लेकिन खामोश प्रकार को उप-तीव्र थनैला कहा जाता है, जिसमें पशु में कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखते पर दूध की गुणवत्ता गिर जाती है। तीव्र थनैला में थन में लालिमा, गर्माहट, सूजन और दर्द जैसे लक्षण दिखाई देते हैं और पशु को बुखार भी हो सकता है। जब यह बीमारी लंबे समय तक बनी रहती है, तो इसे पुरानी थनैला कहा जाता है, जिसमें बार-बार संक्रमण होता है और थन की संरचना स्थायी रूप से खराब हो सकती है।
इस बीमारी के लक्षणों में थन में सूजन, दूध की मात्रा में गिरावट, दूध में बदबू या खून, पशु की बेचैनी, बुखार और दूध के रंग या पीएच में बदलाव शामिल हैं। मुख्य कारणों में साफ-सफाई की कमी, गंदे बर्तन या हाथों से दूध निकालना, थनों की सफाई न करना और दूषित वातावरण शामिल हैं। दूध निकालने की गलत तकनीक और बार-बार मशीन या हाथ से जोर-जबरदस्ती से दूध निकालना भी इस बीमारी को जन्म देता है। इसके अलावा कमजोर पोषण, अत्यधिक तनाव और अन्य संक्रमित पशुओं के संपर्क में आना भी इसके प्रमुख कारण हैं।
पहले थनैला की पहचान मुख्यतः लक्षणों के आधार पर ही होती थी, जिससे कई बार बीमारी को समय रहते पकड़ पाना मुश्किल होता था। लेकिन अब लाला लाजपतराय पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार के वैज्ञानिकों ने इस बीमारी की समय रहते पहचान के लिए एक नई तकनीक विकसित की है। इस शोध के अनुसार यदि दूध में अल्फा1 ग्लाइको प्रोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है, तो वह थनैला का संकेत हो सकता है। इस प्रोटीन की जांच स्पेक्ट्रो फोटोमीटर से की जा सकती है। यह तकनीक जल्दी, सटीक और बिना किसी अतिरिक्त परेशानी के बीमारी की पहचान करने में सक्षम है और इसे पेटेंट भी कराया जा चुका है।
थनैला का इलाज संभव है। डॉक्टर की सलाह से एंटीबायोटिक दवाएं दी जाती हैं, थनों की गुनगुने पानी से सफाई की जाती है और गर्म सेंक से सूजन कम की जाती है। बाज़ार में विशेष मलहम और इंजेक्शन भी उपलब्ध हैं जो थन में सीधे डाले जाते हैं। बीमार पशु को आराम और पौष्टिक आहार देने के साथ-साथ साफ-सुथरे वातावरण में रखना आवश्यक है ताकि वह जल्दी स्वस्थ हो सके और संक्रमण अन्य पशुओं में न फैले।
इस बीमारी से बचाव ही सबसे बेहतर उपाय है। दूध निकालने से पहले और बाद में थनों की सफाई करनी चाहिए। दूध निकालने वाली मशीनें, बर्तन, फर्श और कर्मचारियों की स्वच्छता अनिवार्य है। पशुओं को तनाव से मुक्त रखना, साफ वातावरण में रखना और समय-समय पर पशुशाला की कीटाणुशोधन करना भी आवश्यक है। यदि कोई पशु संक्रमित हो जाए, तो उसे अन्य पशुओं से अलग रखा जाना चाहिए ताकि संक्रमण न फैले।
थनैला एक आम लेकिन अत्यंत गंभीर बीमारी है, जो पशुपालकों की आय, पशु की सेहत और उपभोक्ताओं के लिए दूध की गुणवत्ता पर असर डालती है। लेकिन समय रहते इसकी पहचान और वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग कर इससे बचा जा सकता है। लुवास विश्वविद्यालय की नई खोज ने एक नई आशा जगाई है और यदि इसे बड़े स्तर पर अपनाया जाए तो डेयरी उद्योग को होने वाला बड़ा नुकसान रोका जा सकता है। स्वस्थ पशु, साफ वातावरण और जागरूक पशुपालक मिलकर इस बीमारी से निपट सकते हैं। पशुपालकों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि थन की सफाई ही सबसे जरूरी दवाई है। साफ-सफाई, सतर्कता और समय पर उपचार थनैला जैसी बीमारी से पशुओं को बचा सकते हैं और पशुपालकों की मेहनत को मुनाफे में बदल सकते हैं।