नई दिल्ली: जूट के रेशे से दरी, टाट, रस्सियाँ, बोरे, कागज और कपडों का निर्माण होता है। जूट की खेती करने वाले प्रमुख राज्य पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम, त्रिपुरा, मेघालय और उत्तर प्रदेश हैं। जूट की खेती के लिए गर्म और नम जलवायु के साथ 24 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम उपयुक्त होता है। इसकी खेती के लिए समतल भूमि के साथ दोमट तथा मटियार दोमट मिट्टी, जिसमें जल को रोकने की पर्याप्त क्षमता हो, सबसे अच्छी मानी जाती है।
जूट की खेती के लिए भूमि की तैयारी करते समय एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद में 2 से 3 जुताइयां देसी हल या कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा बना देना चाहिए। किसान मित्रों, जूट का बीज बहुत छोटा होता है इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना बहुत ज़रूरी है। जूट की बुआई सीड ड्रिल से पंक्तियों में करने पर कैपसुलेरिस क़िस्मों के लिए 4 से 5 किग्रा० तथा ओलिटेरियस क़िस्मों के लिए 3 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। अगर आप छिड़कवां विधि से जूट की बुआई कर रहे हैं तो 5 से 6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों का इस्तेमाल करें।
जहाँ तक बात है उर्वरकों के प्रयोग की तो यह मिट्टी परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए। अगर बुआई के 15-20 दिनों पहले खेत में एक टन गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डाल दी जाए तो अच्छी पैदावार प्राप्त होने की संभावना काफी बढ़ जाती है। कूंड विधि से जूट की बुआई करने पर 30 प्रतिशत तक जल की बचत होती है। बुआई के तुरंत बाद इस फसल की सिंचाई ज़रूर करनी चाहिए। उसके बाद आवश्यकता अनुसार 15-20 दिनों के बाद सिंचाई करते रहना चाहिए। जूट की फसल के लिए अधिक समय तक खेत में पानी भरा होना काफी हानिकारक होता है। इसलिए हानि से बचने के लिए उचित जल निकास प्रबंधन करना चाहिए।
किसान मित्रों, 100 से 120 दिनों के बाद जूट की फसल उत्तम रेशा प्राप्त करने के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के बाद पौधों को दो से तीन दिनों तक खेत में पत्तियों के गिरने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर प्रत्येक पौधों के रेशों को अलग-अलग निकालकर हल्के बहते हुए साफ पानी में अच्छी तरह धोकर किसी तार या बांस पर लटकाकर कड़ी धूप में 3 से 4 दिनों तक सुखाया जाता है। अच्छी तरह से सुखाने के बाद जूट के रेशों को अलग कर लिया जाता है।