नई दिल्ली: आज के समय में पपीते की खेती से कई किसान लाखों का मुनाफा कमा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने पपीते की खेती को पूरी तरह से एक व्यवसाय के रूप में अपनाया है। पपीते की व्यावसायिक खेती में बात चाहे बढ़िया गुणवत्ता वाले प्रमाणित बीजों की हो, भूमि के चयन की या फिर पैदावार प्राप्त होने के बाद उसे खरीदारों तक पहुंचाने की – हर एक बिन्दु पर गहन शोध बहुत ही ज़रूरी है। किसान मित्रों, पपीते की खेती से अच्छा मुनाफा कमाने के लिए कई एक रोगों से पपीते का बचाव करना आवश्यक होता है। अन्यथा, या तो आपका मुनाफा घट जाएगा या फिर आपको घाटा हो जाएगा। तो आगे चलिये जानते हैं पपीते के कुछ प्रमुख रोगों और उनके उपचार के बारे में।
मंद मोजेक: इस रोग के लक्षण पपीते के वलय चित्ती रोग के लक्षण से काफी मिलते जुलते हैं। यह रोग पपीता मोजेक विषाणु द्वारा होता है।
बचाव: विषाणु जनित रोगों के पर नियंत्रण के बारे में अभी तक समुचित जानकारी ज्ञात नहीं हो पायी है। पर निम्न उपायों को अपनाकर रोग के फैलाव को जा सकता है:
पपीते के बाग में सफाई रखें। रोगी पौधे के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।
नये बाग लगाने के लिए स्वस्थ तथा रोगरहित पौधों का चुनाव करें।
रोगग्रस्त पौधे किसी भी उपचार से स्वस्थ्य नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन्हें उखाड़कर जला देना ही बेहतर होता है। नहीं तो ये विषाणु अन्य पौधों पर भी रोग को फैला देते हैं।
रोगवाहक कीटों की रोकथाम के लिए पपीते के पौधे पर कीटनाशी दवा ऑक्सीमेथिल ओ., डिमेटान (मेटासिस्टॉक्स) 0.2 प्रतिशत घोल 10-12 दिन के अंतर पर छिड़काव करें।
तना विगलन: इस रोग के लक्षण भूमि सतह के पास तने पर जलीय दाग या चकते के रूप में दिखते हैं। अनुकूल मौसम में इन चकतों का आकार बढ़ने लगता है और अंत में तने के चारों ओर मेखला सी बन जाती है।
बचाव: इस रोग से बचाव के लिए पपीते के बगीचों में जल-निकास का उचित प्रबंध करें जिससे बगीचे में पानी अधिक समय तक न रूका रहे।
रोगी पौधों को शीघ्र ही जड़ सहित उखाड़ कर जला दें। ऐसा करने से रोग के प्रसार में कमी आती है। यह भी ध्यान रखें कि जहाँ से पौधे उखाड़े गये हों, उस जगह पर दूसरी पौध बिलकुल न लगाए जाए।
भूमि सतह के पास तने के चारों तरफ बोडों मिश्रण (6:6:50) या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत), टाप्सीन-एम (0.1 प्रतिशत) का कम से कम तीन बार जून-जुलाई और अगस्त के महीने में छिड़काव करें।
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती: पपीते को प्रभावित करने वाला यह एक प्रमुख रोग है। इसके लक्षण पत्ती व फलों पर दिखायी देते हैं। दिसम्बर-जनवरी के महीनों में पतियों पर नियमित से अनियमित आकार के हल्के भूरे रंग के दाग उत्पन्न हो जाते हैं। दाग का मध्य भाग धूसर होता है। और रोगी पत्तियाँ पीली पड़कर गिर जाती है। प्रारंभ में फलों पर सूक्ष्म आकार के भूरे से काले रंग के दाग बनते हैं जो धीरे-धीरे बढ़कर लगभग 3 मि.मी. व्यास के हो जाते हैं।
बचाव: इस रोग से पपीते के पौधों का बचाव करने के लिए रोगी पौधों के गिरे अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। इसके अलावा कवकनाशी दवा जैसे, टाप्सीन एम 0.1 प्रतिशत, मैंकोजेब, 0.2 से 0.25 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें। यह छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर दुहराएँ।