नई दिल्ली: किसानों द्वारा रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति दिनों दिन कम हो रही है। यही नहीं अब रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कई और भी नकारात्मक प्रभाव दिखने लगे लगे हैं। लेकिन आने वाले समय में यह समस्या और भी गंभीर होने वाली है। कुछ किसान, जो इन संभावित दुष्प्रभावों को लेकर जागरूक हैं, वो अभी से इसके अन्य विकल्पों का सहारा ले रहे हैं। उन्हीं में से एक है – हरी खाद।
हरी खाद न केवल 17 पोषक तत्वों की आपूर्ति करने में सहायता करता है बल्कि मिट्टी में हार्मोन और विटामिन की मात्रा भी बढ़ाता है। मुख्य रूप से चार दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में फूल आने के तुरंत पहले मृदा उर्वरता और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया को ही हरी खाद कहा जाता है। हरी खाद जैविक खेती का महत्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य उदेश्य वायुमंडलीय नाइट्रोजन को मिट्टी में स्थिर करना एवं मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा को बढ़ाना है, जिसमें कम रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करना पड़े।
हरी खाद के लिए दलहनी फसलें कृषि जलवायु प्रक्षेत्र के अनुसार ली जाती हैं। ये फसलें कम समय में ही बहुतायत मात्रा में कार्बनिक पदार्थ उपलब्ध कराती हैं। दलहनी फसलों की वृद्धि शीघ्र होती है, जिसके कारण खरपतवार की वृद्धि नहीं हो पाती है और मिट्टी में शीघ्र ही सड़ने योग्य हो जाती हैं। हरी खाद के लिए प्रमुख फसलें ढैंचा, सनई, लोबिया, ग्वार, उड़द और मूंग इत्यादि हैं। गन्ने की खेती के दौरान गन्ना व सनई की फसल को साथ लगाने के 40-50 दिन बाद गन्ने में मिट्टी में चढ़ाने के समय सनई को मिट्टी में मिला दिया जाता है। यह एक काफी आसान प्रक्रिया है।
हरी खाद बनाने के दौरान पौधों को मिट्टी में पलटने का समय काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए इसका विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। दलहनी फसलों की जड़ों में जब गुलाबी या लाल ग्रंथियों का निर्माण हो जाए तब फसल को पलट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए। जबकि उड़द और मूंग में फलियों की तुड़ाई के पश्चात फसलों की जुताई कर मिट्टी में मिलाया जा सकता है। फसल को मिट्टी में पलटने के बाद उसमें धान की रोपाई भी की जा सकती है। ऐसा करने से दोहरा लाभ मिल जाता है और धान में नाइट्रोजन की पूर्ति करने हेतु यूरिया का छिड़काव किया जाता है। उस क्रिया से हरी खाद की फसल के अपघटन में समय मिलता है। इस प्रक्रिया से धान की फसल की पैदावार के साथ ही अगली फसल के लिए पर्याप्त मात्रा में कार्बनिक पदार्थ उपलब्ध हो जाता है और मृदा संरचना में सुधार होता है। यही नहीं, इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता में भी बढ़ोतरी होती है।