कृषि पिटारा

खेती में प्लास्टिक का उपयोग

आज के युग में प्लास्टिक का उपयोेग दैनिक जीवन से हर क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है और कृषि जगत भी इससे अछूता नही रहा है। लोहे एवं लकड़ी का उपयोग कम हुआ है और उसकी जगह दैनिक जीवन में प्लास्टिक ने ले ली है। प्लास्टिक में बहुत सी खूबियाँ पायी जाती है जिसके चलते बढ़ी तेजी से इसका उपयोग बढ़ा है। ये खूबियाँ हैः-

1. ज्यादा मजबूत व लचीलापन होता है।

2. इसमें जंग नहीं लगता है और न ही किसी तरह की सड़न होती है।

3. तरल पदार्थों एवं गैस के रिसाव को रोकने में बहतर होती है।

4. वजन के हिसाब से हलका होना।

यह प्लास्टिक ही है जिसके चलते सुदूर उŸार भारत एवं उŸार पूर्वी भारत कें दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र जैसे श्रीनगर, लेह लद्दाख, शिलोंग इत्यादि क्षेत्रों में शाक-सब्जियों, कट फ्लावर की खेती एवं फलोत्पादन सम्भव हो सका है, तो दूसरी तरफ रेगिस्तान की उबड़खाबड़ एवं बेकार पड़ी जमीन पर वहाँ कि किसान वहाँ की विपरीत आबोहवा एवं दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों में न केवल शाक-सब्जियों एवं फल-फूलों की व्यवसायिक खेती कर रहे है जिसकी पूर्व में कल्पना भी कर सकते थे और अब यह सब मुमकिन हो पाया है। प्लास्टिक के इस्तेमाल से और प्लास्टिक का कृषि जगत में बढ़ते उपयोग को ‘‘प्लास्टिककल्चर’’ नाम दिया गया है। आज प्लास्टिक ने कृषि जगत एवं किसान की दुनिया ही बदल कर रख दी है।

खेती में आज प्लास्टिक का उपयोग कई रुप में हो रहा है, जैसे- सिंचाई में, कृषि उपकरणों (यंत्रों) में, पाली हाऊस, पाली टनल, शेडनेट हाऊस में पलवार के तौर पर, भल्च के तौर पर, नर्सरी की थैलियों एवं परो-ट्रे (प्लास्टिक ट्रे) के रुप में और प्लास्टिक से बने सोलर ड्रायर के रुप में।

सिंचाई में प्लास्टिकः-

पानी की किल्लत दिनों-दिन एक प्रकार की गंभीर समस्या बनती जा रही हैं और ऐसे में कृषक वर्ग भी इस समस्या से अछूता नहीं है। हमारे देश के ज्यादातर किसान इस समस्या से जूझ रहे है। दिनों दिन जमीन में पानी का स्तर गिरता जा रहा है। ऊपर से पानी का यों ही बेकार में बह जाना इस समस्या को ओर जटिल बना देता है। प्लास्टिक तकनीक के अन्तर्गत भ्क्च्म् ;भ्पही कमदेपजल च्वसल म्जीलसमदम च्वसलउमतद्ध एवं स्क्च्म् ;स्वू कमदेपजल च्वसल म्जीलसमदम च्वसलउमतद्ध पाईपों का इस्तेमाल कर कई तरीकों से सिंचाई की जा रही है। इससे पानी की बचत के साथ साथ सिंचित क्षेत्र भी बढ़ोतरी होती है। ये तरीके है- स्प्रिंकलर सिस्टम, ड्रीप सिंचाई सिस्टम, फर्टिगेशन एवं ड्रम किट ड्रिप सिंचाई।

फव्वारा या स्प्रिकलर सिंचाईः-

इस विधि में फव्वारों द्वारा पौधों पर पानी बारिश की फुहार जैसा गिरता है। ऊँची-नीची जमीनों पर आसानी से खेती की जा सकती है क्योंकि इस विधि द्वारा पौधों की सिंचाई की जा सकती है। खुली सिंचाई की अपेक्षा फव्वारा विधि में पानी की बचत होती है। इसमें फसल के मुताबिक स्प्रिंकलर को सही दूरी पर लगा दिया जाता है। पंप के इस्तेमाल से पानी तेज बहाव के साथ स्प्रिंकलर के ऊपर लगी नाजिल से फुहार बन कर बाहर गिरता है। स्प्रिंकलर, मीनी स्प्रिंकलर, मिस्टर्स एवं पॉप अप इत्यादि आजकल चलन में है। फसल के अनुसार इनका चयन एवं उपयोग किया जाता है।

ड्रिप सिंचाईः-

बूँद-बूँद सिंचाई के तरीके के अन्तर्गत पानी को पौधों की जड़ों में उनकी जरुरत के अनुसार बूंद-बूंद गिरा कर पहुँचाया जाता है। इस तरीके में पानी के स्त्रोत ट्यूबवेल, प्लास्टिक या सीमेंट का टैंक से एक मोटी मुख्य पाइप जुड़ी होती है और इससे सब मेन पाइप लाइन निकलती है उसे लेटरल कहते है। जो पूरे खेत में बिछी होती है और इन लेटरल पर बारिक छेद कुछ अंतराल (दूरी) पर ऊपर या अंदर लगे होते हैं। जहाँ से बूँद-बूँद पानी निकलता है, जो कि पौधों की जड़ो के आस पास के इलाके को गिला करते है। ड्रिपर्स दो प्रकार के होते है ऑन लाईन ड्रिपर्स एवं इन लाईन ड्रिपर्स। ऑन लाईन ड्रिपर्स फलो के बगीचे में जहाँ पौधों से पौधों की दूरी 1 मीटर से ज्यादा होती है में उपयोग मे लिया जाता है और 1 मीटर से कम दूरी होने पर इन लाइन ड्रिपर्स लगाये जाते है खास तौर पर सब्जियों एवं फूलों के उत्पादन के दौरान इनका उपयोग होता है।

फर्टिगेशनः-

पानी के साथ खाद या रसायनिक उर्वरक मिलाकर बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली द्वारा पौधों की जड़ों के इलाके में जरुरत के अनुसार देना फर्टिगेशन कहलाता है। इसके लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली के अलावा फर्टिगेशन टैंक या वेनचुरी का प्रयोग किया जाता है। इस फर्टिगेशन प्रणाली को अपनाकर किसान अपनी मेहनत, समय एवं पैसे की बचत कर सकता है। साथ ही अच्छी गुणवता एवं अधिक मात्रा में उत्पादन प्राप्त कर सकता है वो भी बिना प्रदूषण बढ़ाये।

ड्रम किट ड्रिप सिंचाईः-

इस तरीके से जरुरत के मुताबिक जगह जगह सौ या डेढ सौ लीटर वाले मजबूत प्लास्टिक के ड्रमों को 3 मीटर ऊँचे सीमेंट के स्टैंड पर रख दिया जाता है। इन ड्रमों से पानी को निकलने के लिए लगाए गए पाईपों में गेट वाल्व व फिल्टर लगाये जाते है, ताकि जरुरत नहीं होने पर, गेट वाल्व को बंद कर पानी की सप्लाई को रोका जा सके। जहाँ कम बरसात होती है उस क्षेत्र की बागवानी फसलों के लिए यह तरीका किसी दैवीय वरदान से कम नहीं है।

प्लास्टिक मलचः-

जमीन पर ऊठी हुई क्यारियाँ बना कर उस पर प्लास्टिक की काली या दुधिया या चाँदी के रंग वाली या दो रंग वाली फिल्म बिछा दी जाती है। इसे प्लास्टिक मल्च कहते है। आम तौर पर 25 माइक्रॉन मोटाई वाली फिल्म मल्च के लिए उपयुक्त रहती है। इससे मिट्टी में नमी ज्यादा समय तक बनी रहती है, जिससे बूंद-बूंद वाली सिंचाई तकनीक में ओर भी कम पानी लगता है क्योंकि पानी का वाष्पोत्सर्जन रुक जाता है। खरपत वार नहीं उग पाती है जिससे निराई गुड़ाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है इस प्रकार समय एवं पैसे की बचत होती है। सिल्वरी ब्लेक मल्च का उपयोग करते समय सिल्वरी सतह को ऊपर रखा जाता है और काली सतह अंदर की तरफ रखी जाती है। इससे पानी की बचत, खरपतवार नियंत्रण में सहायता होती है और किट-पतंगों का प्रकोप भी कम पाया जाता है। इसलिए सिल्वरी ब्लेक मल्च ज्यादा प्रचलन में है।

नालियों व नहरों में प्लास्टिकः-

कच्ची नालियों से काफी पानी बेकार बह जाता है। अगर नहरों व नालियों में प्लास्टिक की परत बिछा दी जाए, तो बड़ी आसानी से रिसाव को रोका जा सकता है। भारत में नहरों और नालियों से पानी के रिसाव को रोकने के लिए प्लास्टिक की परत बिछाने की शुरुआत साल 1959 में हो गई थी।

प्लास्टिक थैलियाँ एवं नर्सरी लगाने वाली प्लास्टिक ट्रे ( प्रो ट्रेज):-

आज बागवानी या दूसरी फसलों की नर्सरी तैयार करते समय फूलों व सब्जियों के लिए 10 से 15 सेंटीमीटर व फलों के लिए 15 से 20 सेंटीमीटर आकार की थैलियाँ इस्तेमाल की जाती है। साथ ही आजकल नर्सरी उगाने वाली प्लास्टिक ट्रे का प्रयोग शाक-सब्जियों की नर्सरी (पौध) तैयार करने के लिए किया जाता है।

लाभः-

पौधें में अगर कोई बीमारी लग जाती है तो पूरी नर्सरी के पौधों पर असर होता है परन्तु पॉलीथीन बैग के पौधे में अगर बीमारी लगे तो उसी पौधे पर असर होता है और उसे आसानी से हटाया जा सकता है। इसके अलावा पौधों को आसानी से कही भी लाया व ले जाया जा सकता है। नर्सरी ट्रे मेें सभी पौधों की बढ़वार बहुत अच्छी एवं समान रुप से होती है। पौधों की जड़ो का विकास बहुत अच्छा होता है, जिससे तुरन्त जमीन (मिट्टी) में स्थापित हो जाते है। इस तरीके से बीजों का अंकुरण भी बढ़िया होता है और पौधे कम मरते है।

कृषि उपकरणः-

आज ज्यादातर कृषि उपकरण प्लास्टिक के बन रहे है। जैसे- घमेला, स्प्रे टंकी, स्प्रे टंकी, स्प्रें करने वाले उपकरण, लॉन मोवर, ट्रेक्टर के कल पुर्जे इत्यादि।

पोली हाऊस एवं शेड नेट हाऊसः-

ग्रीन हाउस लोहे के पाईपों या लकड़ी से बना एक ऐसा ढांचा है जो कि एक पारदर्शी आवरण से ढका होता है। जिसमें से सूर्य की किरणें जो कि पौधों के लिए उपयुक्त पाई जाती हैं अन्दर आ सकती हैं। विशेष तौर से 400 से 700 नैनोमीटर वेवलेन्थ वाली किरणें जिसको कि हम विजीबल लाईट कहते हैं। पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए उपयुक्त होती है। अगर यह पारदर्शी ढकने की सामग्री पोलीथीन फिल्म या शीट काम में ली जाती है तो इसे पोलीहाउस कहते है। पोलीहाउस में कटफ्लावर की खेती (डच गुलाब, जरबेरा, कारनेशन, गुलदावदी और रंगीनशिमला मिर्च) की खेती की जाती है। अगर यह पारदर्शी ढकने की सामग्री शेड नेट की जाली है तो उसे शेडनेट हाउस कहा जाता है। शेड नेट हाउस में रंगीन शिमला मिर्च, चैरी टमाटर, जुकनी, ब्रोकली, लेट्यूस, लाल गोभी, हरा धनियां और सब्जियों की पौध, फलों के पौधे एवं जंगली पौधों की नर्सरी तैयार करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।

शेडनेट के प्रकार:-

पोली हाऊस या शेडनेट हाऊस घर की तरह ढांचे पर बना आकार का होता है। जिसे 200-400 माइक्रॉन मोटाई वाली सफेद/पीली प्लास्टिक शीट से ढका जाता है। यह ढ़ांचा ग्रीन हाऊस इफेक्ट के अनुसार काम करता है, जिसमें आबोहवा को काबू में कर के बेमौसमी फसलों को भी उगाया जा सकता है। वास्तव में प्लास्टिक कल्चर ने खेती में कई बदलाव किए है, जिन से पैदावार को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।

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